Hemant Mishra Astrologist – Online Astrologer

ज्योतिष अंधविश्वास नहीं है, प्रामाणिक विज्ञान है। मार्गदर्शन करना ही ज्योतिष का उद्देश्य है। ज्योतिषी कोई भगवान नहीं है और न ही किसी का प्रारब्ध बदल सकते हैं। वर्तमान संदर्भ में ज्योतिष शास्त्र की प्रासंगिकता यह है कि ज्योतिषी सही मार्गदर्शन कर सकते हैं। जिससे कि कर्तव्यविमूढ़ व्यक्ति को सही दिशा मिल सके। * व्यक्ति का नामांक उसके मूलांक एवं भाग्यांक से मेल नहीं खाता। ऐसे में वह व्यक्ति जीवन-भर संघर्ष करता रहता है, पर उसे कुछ मिलता नहीं। जैसे फूटे हुए घड़े में कोई कितना ही पानी डालता रहे, वह भरता नहीं, ठीक यही हाल उस व्यक्ति का होता है जिसका नामांक उसके मूलांक या भाग्यांक के अनुकूल नहीं है।
HEMNAT -0000007

हस्त रेखा प्रस्तावना

॥ श्री गणेशाय नमः ॥

हस्तरेखा विशेषज्ञ हेमंत कुमार मिश्रा द्वारा लिखित प्रस्तावना

व्यावसायिक प्रयोजनों हेतु हस्तरेखा-शास्त्र का अध्ययन :-

    हस्तरेखा-शास्त्र का प्रयोजन अन्तःकरण द्वारा नहीं, अपितु उल्लिखित नियमों के माध्यम से, इस प्राचीन विद्या को सीखना है। ये नियम हर समय व हर परिस्थिति में निश्चित रूप से कार्य करते हैं, जबकि अन्तःप्रेरणा तो कभी-कभार ही किसी क्षणिक आवेश के प्रभाव के अधीन काम करती है। अतः उस पर पूर्णतः निर्भर नहीं रहा जा सकता।

    जिन नियमों के बिना किसी भी विज्ञान का गम्भीर अध्ययन नहीं किया जा सकता, वे सब उन्नीसवीं शताब्दी में दो व्यक्तियों के द्वारा निर्धारित किये गये। ये दो व्यक्ति कप्तान आर्जेन्टिग्नी तथा स्वयं मैं थे। कप्तान अर्पेन्टिग्नी ने ही हस्तरेखा शास्त्र नामक प्रणाली का सृजन किया। उन्होंने हाथ की बाह्य संरचना, इसके आकार, अंगुलियों के सिरे आदि से सम्बन्धित अनेक टिप्पणियां की, लेकिन उन्होंने हथेली पर अंकित चिह्नों व रेखाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया। विज्ञान की यह अतिरिक्त शाखा अत्यन्त प्राचीन है, जो आज भी हस्तरेखा-शास्त्र का एक प्रमुख भाग है तथा शरीर एवं मस्तिष्क की स्थिति व प्रवृत्तियों से सम्बन्धित उसके सूक्ष्म विवेचन का समर्थन भी करती है। यह भूत या भविष्य की घटनाओं के सम्बन्ध में कोई भविष्यवाणी नहीं करती।

    लेकिन अब विचारकों व अन्वेषकों द्वारा संसार भर में हस्तरेखा शास्त्र पर परिचर्चा की जाने लगी है। यह सत्य है कि अरस्तू ने यह लिखते समय इस दिशा में आधुनिक खोजों की उम्मीद की थी कि ‘‘मनुष्य के हाथों में रेखाएं अकारण ही नहीं खींची गयी हैं। वे दैवी प्रभाव तथा मानव के पुरुषार्थ से ही प्रकट होती हैं।‘‘ इस प्रकार उस महान् दार्शनिक के मस्तिष्क में अस्पष्ट व अपरिसीमित वातावरण की आभा के जो सिद्धान्त विद्यमान थे, वे उन्नीसवीं शताब्दी के विद्वानों के मस्तिष्क में भी रहे तथा उन्होंने आधुनिक अन्वेषकों के साथ व्यावहारिक वार्तालाप करके उनको आगे बढ़ाया।

    वस्तुतः इस वातावरण में हवा, प्रकाश, ऊष्मा, विद्युत, द्रव या कम्पन विद्यमान हैं, जो हमें जीवन प्रदान करते हैं तथा जिनके न रहने से हमारी मृत्यु हो जाती है। हमारे युग के सभी महान् शरीर-वैज्ञानिक एवं ख्यातिनामा चिकित्सक इस शक्तिशाली रहस्यमय शक्ति की उचित परिभाषा करने में असमर्थ रहे। इस जटिल प्रश्न पर गहन अध्ययन करने के उपरान्त वे अभी तक केवल दो शब्दों में ही उत्तर दे सके। ये दो शब्द हैं ‘‘चुम्बकीय विद्युत‘‘। इस सम्बन्ध में चार्ल्स बोने से लिखा है-‘‘विचार कुछ और न होकर केवल कम्पन हैं, जो हमारे भीतर परिवर्तन लाने के सिवा और कुछ नहीं करते।‘‘

    इस प्रकार एक महत्त्वपूर्ण द्रव के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया, जो ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से मस्तिष्क को सूचनाओं के आदान-प्रदान का साधन बताता है।

    यह द्रव अंगुलियों के माध्यम से मानव शरीर को कैसे नियन्त्रित करता है तथा हथेली पर अपने चिह्न छोड़ते हुए किस प्रकार मस्तिष्क का संचालन करता है, इसे समझने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं है।

    मनुष्य के शरीर में प्रत्येक तत्त्व एक स्पष्ट एवं भिन्न विशिष्टता को बनाने के लिए होता है। चेहरे की आकृति, मस्तिष्क के आकार की अनियमितता, अंगों को लम्बाई या लघुता, आभा, चलना, देखना तथा शब्द आदि यहां तक कि हस्तलिपि व हाथ की रेखा भी व्यक्ति को पूर्ण विशिष्टता प्रदान करने में सहायक होती हैं। 

अरस्तू ने कहा कि ‘‘हाथ अंगों का अंग तथा यन्त्रों में एक महान यन्त्र है‘‘। आर्येन्टिग्नी ने अपनी अलंकृत भाषा में लिखा है:- 

    ऐसे हाथ हैं, जिनके प्रति हम स्वभावतः आकर्षित हो जाते हैं तथा ऐसे हाय भी हैं, जिन्हें देखते ही हम घृणा से भर उठते हैं। मैंने कुछ हाथ ऐसे भी देखे हैं, जो तीक्ष्ण बुद्धि-सम्पन्न दिखाई देते हैं। कुछ हाथ आधे शेर व आधी स्त्री के लक्षणों वाले दिखाई पड़ते हैं। ऐसे हाथ अत्यन्त रहस्यमय होते हैं। कुछ हाथ जातक के शरीर में छिपे आलस्य व शक्ति का परिचय देते हैं, तो कुछ हाथ जातक की दुर्बलता व धृष्टता के साथ-साथ उसके प्रमादी होने का भी संकेत देते हैं।

    इस बात से इनकार करना असम्भव है कि हाथ तथा विशेषकर अंगुलियों के सिरे या हथेली के केन्द्र में स्पर्श-ज्ञान पांचों ज्ञानेन्द्रियों से अधिक होता है। हाथों के पूर्णतः समर्थ व सक्षम होने तथा उनमें स्पर्श-ज्ञान विद्यमान रहने पर भी अन्धा, बहरा, मूक तथा घ्राणशक्ति से विहीन व्यक्ति भी अपने साथियों के साथ बातें एवं व्यवहार कर सकता है। हाथ की यह विशिष्टता ही हमें इस महत्त्वपूर्ण द्रव के ग्रहण करने, वितरण करने तथा इसके प्रभाव का भविष्यकथन करने में समर्थ बनाती है। हाथ की प्रबल तन्त्रिकाओं की संवेदना से ही विचार का जन्म होता है। अन्य ज्ञानेन्द्रियां जिस संचेतना का केवल संकेत देती हैं, उस संचेतना को हाथ ही कार्यरूप प्रदान करते हैं।

    अनेक सुविख्यात शरीर-वैज्ञानिकों का यह मानना है कि अधिक कार्य करने के बाद हाथ गरम हो जाते हैं तथा मानसिक तनाव के कारण शक्ति नष्ट होने से अनेक बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि स्वाभाविक जीवन के केन्द्रीय तत्त्वों में से एक तत्त्व हाथ भी है। उनके विचार से जीवन का स्वाभाविक प्रवाह चारों अंगुलियों के नीचे निर्मित पर्वतों में होता है। इसके साथ ही हाथ के समतल भाग तथा अंगुलियों के सिरों में भी यह प्रवाह पाया जाता है। इन कोशिकाओं की संख्या 250 अथवा 300 है। सूक्ष्म कोशिकाओं का यह जाल संवेदनाओं का केन्द्र है। ये कोशिकाएं स्नायु-शक्ति को एकत्रित करने, अंगुलियों से महत्त्वपूर्ण द्रव को प्राप्त करने तथा विद्युत्-संग्राहक की भांति इसका भण्डारण करके हाथ को आश्चर्यजनक संवेदन- शक्ति प्रदान करती हैं। इन कोशिकाओं से प्राप्त होने वाली चेतना को ही सामान्य भाषा में स्पर्श-ज्ञान कहते हैं। यहां इस तथ्य का उल्लेख करना भी प्रासंगिक है कि यह कोशिका जाल बन्दर के हाथों में नहीं पाया जाता अथत्रा यदि होता भी है, तो उसमें कोशिकाओं की संख्या बहुत कम होती है। जन्मजात मूर्ख व्यक्ति के हाथों पर भी ऐसी कोशिकाएं बहुत कम पायी जाती हैं।

    इस प्रकार हम सम्पूर्ण विश्व को चारों ओर से घेरे हुए तथा विद्युत् कहे जाने वाले अतुलनीय शक्तिशाली द्रव के अस्तित्व व मानव के स्नायु-तन्त्र के प्रत्येक कार्य में हाथ के सर्वोपरि महत्त्व को जान चुके हैं।

    इन दोनों बातों को परस्पर जोड़कर देखें, तो हमें स्वीकार करना होगा कि मानव जीवन के बाह्य स्रोत से मनुष्य के अन्तश्चेतन के विशिष्ट केन्द्र तक, अंगुलियों द्वारा शक्तिशाली विद्युत् प्रवाहित होती है, जो कार्य पूरा होने के बाद वापस लौट आती है। यह कार्य शरीर के किसी भी भाग अथवा सम्पूर्ण शरीर से ही उक्त द्रव के समाप्त हो जाने या मृत्यु होने तक निरन्तर चलता रहता है।

    यहां यह दोहराने की आवश्यकता नहीं कि स्नायु-तन्त्र की पेचीदा कार्यपद्धति के दौरान अंगुलियों के सिरों से मध्य मस्तिष्क तक, टेलीग्राफ के तारों के जाल की भांति विद्युत्-धारा की हजारों कोशिकाओं से यह अजस्र प्रवाह होता रहता है।

    यह भी आश्चर्यजनक नहीं है कि यह विद्युत् प्रवाह हथेली के ऊपर अविराम गति से गुजरते हुए उस पर अपने विशेष चिह्न छोड़ जाता है। ये चिह्न जातक द्वारा अनुभव किये गये स्नायविक दबाव की प्रबलता के अनुपात में ही भारी या हलके होते हैं।

    यहां यदि कोई यह कहे कि कार्य करते समय अंगुलियों की गति के अनुसार ही ये चिह्न बनते हैं, तो उसको उत्तर दिया जा सकता है कि आलसी महिलाओं के हाथों में व्यस्त पुरुषों की अपेक्षा अधिक रेखाएं पायी जाती हैं। अतः यदि उन रेखाओं का सम्बन्ध व्यक्ति के कार्य से होता, तो आलसी महिलाओं के हाथों में रेखाएं कदापि नहीं बनतीं। इसी प्रकार शारीरिक श्रम करने वाले श्रमिकों के हाथों में भी किसी नवजात शिशु के हाथों की अपेक्षा बहुत कम रेखाएं पायी जाती हैं। 

    अतः इन रेखाओं तथा हथेली के चिह्नों का अस्तित्व अंगुलियों के सिरों से मस्तिष्क तक तथा मस्तिष्क से पुनः अंगुलियों के सिरों तक, द्रव के प्रवाहित होने पर निर्भर करता है। पक्षाघात से पीड़ित किसी हाथ का निरीक्षण करने पर सभी प्रकार को शंकाएं दूर हो जायेंगी, क्योंकि इस प्रकार के मृत हाथों में ये चिह्न समाप्त हो चुके होते हैं, जबकि स्वस्थ हाथ में पूर्णतः सजीव व स्पष्ट रेखाओं के रूप में दिखाई देतेहैं। अर्द्धविकसित मस्तिष्क वाले जन्मजात मूखौ के हाथों में भी बहुत कम रेखाएं होती हैं, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों का बौद्धिक विकास कम होता है।

    आर्पेन्टिग्नी ने अंगुलियों के सिरों व गांठों, यानी अंगुलियों के जोड़ों के आकार पर सराहनीय खोज की है, जिस पर आधुनिक हस्तरेखा शास्त्र की आधारशिला स्थापित है। अरस्तू, मुलर, हर्डर, वायकाट, हम्बोल्ट आदि अनेक विचारकों ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है कि हम उस भारहीन द्रव से घिरे हुए हैं,  जिसकी प्रकृति सभी रहस्यों में गहनतम है तथा जिसकी जानकारी प्राचीन ग्रन्थों के अप्रकाशित रहस्यों में से एक है। अरस्तू ने तो लिखा है कि ‘‘मानसिक बल अत्यन्त सूक्ष्म वातावरण से बना हुआ है।‘‘ एलेक्जैण्डर कॉन हम्बोल्ट ने तो यहां तक कहा है कि ‘‘मानव के स्नायु-तन्त्र के चारों ओर एक अदृश्य वातावरण विद्यमान रहता है।‘‘

    हम इस द्रव को धीरे-धीरे खोज रहे हैं तथा इसकी कुछ शक्तियों को वर्तमान खोजों के साथ मिलाकर विद्युत् के नाम से विकसित कर रहे हैं। इस प्रकार हम यह तो समझ गये हैं कि यह शक्ति बिन्दु द्वारा आकर्षित होकर मृत्युपर्यन्त हमारे स्नायु-तन्त्र को प्रभावित करती है।

    अपनी पुस्तक में हाथ या अंगुलियों के बीच किसी पारस्परिक सम्बन्ध अथवा किसी बाह्य या आन्तरिक स्नायविक द्रव के अस्तित्व पर भी कुछ न लिखने वाले आपॅन्टिग्नी भी उपर्युक्त सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। वे अंगुलियों के सिरों को चार वगों में विभाजित करते हैं:- 1- नुकीले, 2- शंकुरूप या कम नुकीले, 3- वर्गाकार व 4- चमचाकार या चैड़े। वे प्रत्येक वर्ग के भौतिक, मानसिक व नैतिक लक्षणों का भी उल्लेख करते हैं। उनके इस विभाजन से इस शक्तिशाली द्रव के आकर्षण का विषय पर्याप्त रूप से व्यक्त हो जाता है। यद्यपि उनके तथा मेरे निष्कर्ष मूलतः भिन्न-भिन्न उपायों द्वारा प्राप्त हुए हैं, तथापि अन्ततः उनका परिणाम एक समान ही है।

    आपॅन्टिग्नी नुकीली अंगुलियों वाले जातक में असाधारण प्रेरणा एवं अन्तर्ज्ञान होने की बात करते हैं, लेकिन इस पर मेरा यह कहना है कि नुकीली अंगुलियां इस प्राणधार द्रव को निर्बाध रूप से ग्रहण कर लेती हैं तथा ऐसे जातक अधिक जीवन्तता के साथ कार्य सम्पन्न कर पाते हैं।

    अंगुलियों के नुकीले सिरों को ध्यानपूर्वक देखने पर जो अंगुलियां आंशिक रूप में नुकीली प्रतीत होती हैं तथा जिनमें बीच के पोर से आगे की ओर नुकीलापन आरम्भ होता है, उन्हें शंकुरूप सिरों वाली अंगुलियां माना जाता है। ऐसी अंगुलियों को आर्जेन्टिग्नी ने कलात्मक अंगुली माना है, लेकिन अपनी प्रवृत्ति व कार्य-सम्पन्नता के कारण ऐसी अंगुलियों वाले जातक पहले प्रकार की अंगुलियों वाले जातक से निम्न स्तर के होते हैं। मैं ऐसी अंगुलियों को हाथ तथा मस्तिष्क तक जाने वाले द्रव की न्यून क्षमता दर्शाने वाली अंगुलियां मानता हूं।

    आर्जेन्टिग्नी वर्गाकार सिरों वाली अंगुलियों को पसन्द नहीं करते, परन्तु वे उनको उपयोगी अवश्य मानते हैं। वे हमारा परिचय उपयोगी हाथ वाले जातक से कराते हैं। ऐसा जातक भावुकता से प्रभावित नहीं होता और न ही सांसारिक बातें उसके विचारों में किसी प्रकार का परिवर्तन ला सकती हैं। मुझे इस पर कोई आश्चर्य नहींय क्योंकि नुकीले सिरों के न रहने पर द्रव के समान प्रवाह में रुकावट आती है, जो जातक को उस प्राणाधार केन्द्र के प्रभाव से दूर कर देती है।

    अन्ततः आर्पेन्टिग्नी चमचाकार सिरों वाले हाथ की परिभाषा इस प्रकार देते हैं- ‘‘ऐसे हाथ वाले जातक में किसी प्रकार की महत्त्वाकांक्षा नहीं होती तथा वह अपनी सांसारिक स्थिति को अधिक अच्छी बनाने का प्रयत्न करता है। नुकीले आकार वाले हाथों के अतिरिक्त, यह द्रव जातक की शरीर रचना को अनुप्राणित करके उसे सर्वश्रेष्ठ लक्षणों वाला व्यक्ति नहीं बना पाता।‘‘

    इस प्रकार हजारों हाथों का परीक्षण करने के बाद वे अंगुलियों के सिरों, आकार व उनके प्रभाव, नुकीले होने के अनुपात में न्यूनाधिक रूप से इस प्राणाधार द्रव के द्वारा इस तथ्य की सत्यता को स्पष्ट करते हैं। मुलर की ‘‘फिजिऑलाजी‘‘ में लिखा है कि-‘‘ जातक के स्वभावानुसार ही स्नायविक क्रिया का वेग भिन्न प्रकार का होता है।‘‘ यहां हम आर्पेन्टिग्नी की इस बात से सहमत होते हुए इसमें इतना और जोड़ देते हैं कि-  “अंगुलियों के सिरों की आकृति के अनुसार।”

    अंगुलियों के माध्यम से समस्त शरीर में पहुंचने वाले जीव-द्रव सिद्धान्त के पक्ष में मुलायम व गांठदार अंगुलियों से सम्बन्धित एक अन्य तर्क आर्जेन्टिग्नी के कथन में भी पाया जाता है। लेकिन इस सम्बन्ध में मेरा कहना यह है कि अंगुलियों के माध्यम से ओ माधव को शरीर विज्ञान से जोड़ने का प्रयास किये बिना ही उन्होंने उसे ‘‘ इश्वरीयै प्रेरणा‘‘ नाम दिया है।

    हेमंत कुमार मिश्रा के इस सिद्धान्त की पुष्टि में-जिसको उन्होंने अपनी विशेष खोज होने का दावा किया है- मैं अपने पाठकों का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करना चाहूंगा कि सौ हाथों में से 99 हाथों में जीव-द्रव को आकर्षित करने वाली पहली अंगुली का सिरा हमेशा उसी हाथ को अन्य अंगुलियों की तुलना में अधिक शंकुरूप होता है।

    कोमल अंगुलियों तथा गांठदार अंगुलियों के अन्तर को अंगुली के पोरों के बीच गांठ न रहने से स्पष्ट किया जा सकता है। आर्पेन्टिग्नी का यह कहना है कि नुकीले सिरे बाली कोमल अंगुलियां अनेक बातों को समझने में सहायक होती हैं। लेकिन मैं इसके साथ गांठरूपी बाधा के बिना अंगुलियों में जीव-द्रव के स्वतन्त्र प्रवाह को भी जोड़ता हूं। गांठें न होने से जीव-द्रव का प्रवाह जातक को उत्प्रेरित करता रहता है, जिसके कारण जातक भावुकता प्रधान हो जाता है।

    इसके विपरीत जीव-द्रव के प्रवाह में बाधा उत्पन्न करने वाली ग्रन्थियां जातक को विवेकशक्ति प्रदान करती हैं। लेकिन कोमल अंगुलियों वाले जातकों की अपेक्षा गांठदार अंगुलियों वाले जातक की निर्णयशक्ति मन्द, किन्तु सार्थक होती है।

    अब आप समझ गये होंगे कि आर्पेन्टिग्नी के कथन में हाथ तथा अंगुलियों के सिरे से मस्तिष्क में प्रवेश करने वाले जीव-द्रव का तार्किक सिद्धान्त कैसे छूट गया।

    आपॅन्टिग्नी के अनुसार छोटे हाथ वाले जातक विचारों को समझ तो लेते हैं, परन्तु विस्तार में नहीं जाते। इस सम्बन्ध में मुझे यह कहना है कि ऐसे हाथों में जीव-द्रव के प्रवाहित होने का क्षेत्र इतना छोटा होता है कि उसकी प्रतिक्रिया का समय ही नहीं रह पाता। इसके विपरीत लम्बे हाथ वाले जातक विश्लेषणपरक होते हैं। वे धीरे-धीरे निर्णय लेते हैं तथा कार्य भी मन्थर गति से करते हैं।

    इस प्रकार आर्पेन्टिग्नी की सम्पूर्ण पद्धति अत्यधिक सुदृढ़, स्पष्ट तथा तार्किक नहीं है। मैं मानव की प्रवृत्तियों तथा उसके शारीरिक, मानसिक व नैतिक विकास पर जीव-द्रव के प्रभाव का प्रदर्शन करने का समर्थक हूं। मैं पहले ही यह बता चुका हूं कि अंगुलियों के सिरों से अनुप्राणित होने वाल, कोशिका-जाल के रूप में संग्रहीत होप वाला तथा हथेली की सतह पर गहरे चिह्न बनाने वाला जीव द्रव अन्त में मस्तिष्क में कैसे पहुंचता है तथा वहां से असंख्य कोशिकाओं के जाल से होता हुआ पुनः कैसे वितरित होता है। इस आवागमन में ही मानव जीवन का सम्पूर्ण रहस्य छिपा है। भले ही यह रहस्य व्यावहारिक न हो, लेकिन इसका अनुसरण तो किया ही जाता है तथा हाथों में इसके संकेत विशेष चिह्नों के रूप में पाये जाते हैं।

    मानव मस्तिष्क व इसका शरीर के विभिन्न अंगों के साथ सम्बन्ध अब मैं अपने सिद्धान्तों के सर्वाधिक विरोधाभासी भाग पर आता हूं, जिसका सम्बन्ध इन चिह्नों की व्याख्या से है। इसको मैं तार्किक नियमों के अनुसार प्रस्तुत कर हूं। जहां ये नियम लागू नहीं हो पाते, वहां पूर्ववर्ती हस्तरेखा-विशेषज्ञों द्वारा छोड़ी रहा हूं। जह गयौ पारम्परिक अध्ययन-पद्धति के अनुसार ही इनका विवेचन किया जाता है। हस्तरेखा-विशेषज्ञों में ऐसे वैज्ञानिक भी रहे हैं, जिनके पास कोई उपाधि नहीं थी, लेकिन जिनके विश्लेषण लोगों की स्मृति में अभी तक रचे-बसे हैं।

    यहां मैं तर्क को छोड़कर सबसे पहले हाथ से सम्बन्धित उस अवलोकन की बात कर रहा हूं, जो पारम्परिक है, अर्थात् जो तार्किक सिद्धान्तों पर नहीं, अपितु अनुभव पर आधारित है। इस क्षेत्र में ’अनुभव’शब्द को इसके मूल एवं प्रासंगिक अर्थ में ही लिया जाना चाहिए, सिद्धान्तों पर नहीं, अपितु प्रयोगों पर निर्भर रहने वाले वैज्ञानिक व्यवहार के रूप में लिया जाना चाहिए क्योंकि संकीर्ण मानसिकता वाले व्यक्तियों द्वारा विरोध करने पर भी, यह रोगों की चिकित्सा तक पहुंचने में यह हमारी सहायता करता है। मैं युगों से चले आ रहे जिन प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों की बात कह चुका हूं, उन्होंने मानव के हाथ में पायी गयी रेखाओं व चिह्नों से सम्बन्धित अनेक निष्कर्षों का संचय करके तथा जातकों के जीवन द्वारा ज्ञात तथ्यों के साथ उन निष्कर्षों की तुलना करके ही कुछ कहा है।

    तथ्यों, रेखाओं अथवा संकेतों के दौरान दोहरायी जाने वाली घटनाओं द्वारा वे इन तथ्यों के प्रति आश्वस्त हो गये। इन घटनाओं में उनका गहन अध्ययन एवं मनन समाया हुआ है और तब ही वे ऐसा कथन दे सके। उनका यह कथन पूर्णतः इन प्रयोगों पर आधारित है। सम्यक रूप से उन्होंने अन्वेषित तथ्यों के संकेत हाथ में रहने की बात कही है। इस प्रकार यह प्रकाशस्तम्भ एक जिज्ञासु से दूसरे जिज्ञासु की ओर बढ़ता गया तथा प्रत्येक ने अपने पूर्वाधिकारियों द्वारा संग्रहीत निष्कर्षों को उसमें जोड़ दिया। यह स्थिति उन्नीसवीं शताब्दी तक निरन्तर बनी रही। इस शताब्दी में उसी विश्लेषण से सारतत्त्व का संचय करके उस विपुल साक्ष्य को मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

    तथ्यों को इतनी निकटता से जानने के दौरान मुझे अंगुलियों के सिरों से मस्तिष्क तथा मस्तिष्क से अंगुली के सिरों तक निरन्तर प्रवहमान जोव-द्रय का सिद्धान्त एकदम ठोक लगा। फिर भी हजारों हाथों के परीक्षण ने मुझे यह मानने के लिए विवश कर दिया कि परम्परागत अध्ययन द्वारा प्राप्त ये परिणाम प्रायः एकदम सटीक निकलते हैं। मैंने इस सम्बन्ध में व्यापक क्षेत्र में गहन अध्ययन करके, अपनो प्रणाली का एक अभिन्न अंग बनाने के लिए उन्हें एक वर्ग में एकत्रित किया। शेष को मैंने पारम्परिक अध्ययन मानकर सहज भाव से स्वीकार कर लिया। लेकिन ऐसा मैंने केवल तब हो किया, जब उनकी विशुद्धता के प्रमाणों ने मुझे ऐसा करने के लिए विवश किया। परम्परागत हस्तरेखा शास्त्र की भांति ही तार्किक हस्तरेखा-शास्त्र को भी मैंने अपनी पुस्तक में चित्रित किया, जिसके सिद्धान्तों को संक्षिप्त रूप में इस प्रकार दिया जा सकता है-

    जीव-द्रव का एक बाह्य स्त्रोत है, जिसे मैं पूरे विश्वास के साथ एक सर्वोच्च व सर्वशक्तिमान चेतना द्वारा सृजित व निदेशित मानता हूं। यह जीव-द्रव हमारे भीतर कुछ अंगों के माध्यम से प्रवेश करता है, जिनमें प्रथम एवं सर्वोपरि अंगुलियां हैं, जिनके द्वारा यह मस्तिष्क के प्रकोष्ठों में संचित हो जाता है।

    स्नायु-तन्त्र के द्वारा इस जीव-द्रव का वितरण सम्पूर्ण शरीर में होता है, जिसके विभाजन व वर्गीकरण के लिए बहुत अधिक समय व स्थान की आवश्यकता होती है।

    ये स्नायु न केवल अंगुलियों के सिरों, अपितु उनके पर्वतों व हाथ के रिक्त भाग में सर्वत्र फैले हुए हैं। स्मरण रहे कि अंगुलियों के सिरे स्पर्श-ज्ञान कराते हैं। अंगुली के आधार पर स्थित पर्वतों में विद्यमान कोशिका-जाल जीव-द्रव का भण्डारण करता है तथा हथेली के बीच का खोखला भाग शरीर के तापमान में क्षणिक परिवर्तन के प्रति भी अत्यधिक संवेदनशील होता है। जीव-द्रव के संचरण में अंगुलियों के सिरों की भूमिका को हम समझ चुके हैं तथा इस बात को भी पूर्णतः जान चुके हैं कि इस जीव-द्रव का विशाल भण्डार हाथों की रेखा बनाने वाले मस्तिष्क के सर्वोच्च प्रभाव को स्नायु-तन्त्र द्वारा कैसे व्यक्त करता है। दूसरे शब्दों में जीव-द्रव के न्यूनाधिक तीव्र प्रवाह की मात्रा में अस्तित्त्वशीलता से मस्तिष्क पर पड़ने वाला प्रत्येक प्रभाव लगभग स्थिर एवं अविचल रहता है तथा हाथों में इसके द्वारा बनायी गयी रखाओं का परीक्षण, तुलना, वर्गीकरण व निर्वचन करके इस बात को स्पष्टतः समझा जा सकता है।

    इन चिह्नों द्वारा स्वास्थ्य के सम्बन्ध में न केवल हो चुके कष्टों की जानकारी मिल जाती है, अपितु भविष्य में सम्भावित रोगों का पता भी लग जाता है। आने वाले महीनों अथवा वर्षों में जिस रोग की सम्भावना होती है तथा जिसके विकृतिकारक लक्षण प्रारम्भ हो चुके होते हैं, उसकी जानकारी भी हाथों में बने हुए इन चिह्नों द्वारा हो जाती है। चूंकि सर्वप्रथम मस्तिष्क में ही प्रत्येक सम्भावित बीमारी के कीटाणु उत्पन्न होते हैं तथा जीव- द्रव इसका प्रभाव मनुष्य के हाथों पर रेखाओं के रूप में छोड़ देता है, अतः रेखाओं के अध्ययन से सम्भावित रोग की जानकारी का प्राप्त होना आश्चर्यजनक नहीं है। स्मरण रहे कि सम्बन्धित घटना के परित हो जाने के बाद भी रेखाएं लम्बे समय तक अस्तित्व में रहती हैं।

    जहां तक जीवन की घटनाओं का सम्बन्ध है, इनमें भी यही नियम लागू होता है। अच्छा या बुरा प्रत्येक कार्य मस्तिष्क में स्थित इस जीव-द्रव को एक बार तो प्रभावित करता ही है। यदि जातक का स्नायु तन्त्र विशेष संवेदनशील हो, तो जीव- दव के विशेष प्रभाव के कारण जातक को प्रत्येक गतिविधि हथेली में दोहराई जाती है तथा इस प्रकार बनी हुई रेखा ऐसे प्रभाव के पर्याप्त समय बाद भी विद्यमान रहती है, चाहे जातक की स्मृति में वह घटना विद्यमान रहे या न रहे। जहां तक भविष्य की पटनाओं का सम्बन्ध है, वे अपना संकेत पहले ही दे देती हैं तथा मानव स्वभाव के गहन अध्येता एवं हस्तरेखाविद् तथा मस्तिष्क ज्ञान रखने वाले व्यक्ति सम्बन्धित जातक के हाथ में पर्वतों की स्थिति का तुलनात्मक परीक्षण करके उसके जीवन की गतिविधि को आसानी से जान सकते हैं। आधुनिक हस्तरेखा शास्त्र जीव-द्रव के निर्वाध प्रवाह को समझकर मस्तिष्क व हथेली के घनिष्ठ सम्बन्धों के माध्यम से घटनाओं का भविष्यकथन करने में पूर्णतः समर्थ है।

    यहां मैं यह कहना चाहता हूं कि जिन जातकों का स्नायु-तन्त्र सामान्य की तुलना में निष्क्रिय होता है, उनकी हथेली में अतीत या भविष्य की घटनाओं को अत्यन्त सीमित मात्रा में पढ़ा जा सकता है। इन जातकों के हाथों में इतनी कम रेखाएं होती हैं कि उनसे किसी प्रकार का कोई संकेत नहीं मिलता। ऐसा लगता है कि उनके जीवन की पुस्तक रिक्त पृष्ठों से बनी हुई है तथा हम उनमें कुछ भी नहीं पढ़ सकते।’

    जिन हथेलियों में स्वतन्त्र रूप से कम्पन पैदा करने वाली अत्यधिक संवेदनशील कोशिकाएं पायी जाती हैं, उनमें विद्यमान अनेक रेखाएं व संकेत मनःस्थिति को परिवर्तनशील बनाने वाले जीव-द्रव के प्रवाह का संकेत प्रदान करते हैं। ऐसे जातक सुख एवं दुःख को गहराई से अनुभव करते हैं। शारीरिक वेदना व भौतिक सुखों द्वारा अत्यधिक प्रभावित हो जाने वाले ऐसे जातकों के हाथों में यह सब कुछ अंकित रहता है। जीव-द्रव का प्रवाह भविष्य में होने वाली घटनाओं को भी इसमें अंकित कर देता है तथा अतीत की घटनाओं को भी स्वप्न के माध्यम से बार- बार जातक के सम्मुख प्रकट करता है। स्नायविक उत्तेजना के कारण जातक के मस्तिष्क में निरन्तर सोच-विचार चलता रहता है। हमारे अवचेतन मस्तिष्क में आने वाली इन बातों व विचारों का प्रबल प्रभाव हमारे मस्तिष्क पर पड़ता है तथा एक महत्त्वपूर्ण सन्देश के रूप में हमारे हाथों पर रहस्यमय भाषा के रूप में अंकित हो जाता है।

    यहां मैं इस बात की पुष्टि करता हूं कि प्रचीन हस्तरेखा-विशेषज्ञों की ‘‘फातूम‘‘,‘‘सौरस‘‘ तथा ‘‘अनेन्के‘‘ जैसी अवधारणाएं मेरा अभीष्ट नहीं हैं। ये अवधारणाएं मानवता की निर्णायक नहीं हैं और न ही ये हस्तपरीक्षण की उपाधियां हैं। जीव-द्रव के प्रवाह तथा इसकी प्रचुरता व कमी के कारण ही मानव जाति में स्वतन्त्र इच्छाशक्ति व प्रभाव दिखाई पड़ते हैं। हथेली के प्रतिकूल लक्षणों की होने पर भी इस शास्त्र का अध्ययन करना निरर्थक नहीं हैय क्योंकि भविष्य को पहले जान लेने से व्यक्ति उसका निदान समय पर ढूंढ सकता है। फिर चाहे वह कोई गम्भीर शारीरिक व मानसिक रोग हो अथवा कोई भौतिक समस्या। स्मरण रहे कि रोगों का निदान करने की सामर्थ्य हमारे दृढ़ निश्चय व इच्छाशक्ति पर ही निर्भर करती है।