धर्म के नाम पर प्रायः पूरा का पूरा ही मध्यम वर्गीय हिन्दू समाज दिग्भ्रमित है। इन धर्माचार्यों ने इतना प्रपंच फैला दिया है कि लोग धर्म क्या है? यही नहीं खोज पा रहे हैं। यहाँ संक्षेप में धर्म और साधना विषयक जानकारियाँ प्रथम अध्याय में दी जा रही हैं ताकि लोगों के भ्रम दूर हों और एक दिशा वे तय कर सकें।
अध्यात्म विद्या- सभी प्रकार की धार्मिक बातें अध्यात्म विद्या नहीं होती हैं। आत्मा परमात्मा विषयक जो वेदान्त दर्शन है उसे ही अध्यात्म विद्या कहा गया है। इस वेदान्त को उपनिषदों के रूप में कहा गया है, इनमें भी केवल ९ उपनिषद ही प्रमाणिक माने जाते हैं।
शेष विद्याएँ लोगों ने कल्पना के द्वारा अपने लाभ के लिए रचीं और जनता को बरगलाया है, धन लूटा है। वह त्याज्य हैं।
आत्म विद्या- जो ज्ञान आत्मा विषयक ठीक-ठीक ज्ञान की सटीक अनुभवगम्य जानकारी देता है वहां आत्मविद्या है इसमें, पतंजलि, आदि शंकराचार्य और स्वामी विद्यारण्य का दर्शन ही ग्राह्य है। शेष सब कल्पित और अर्वाचीन तथा स्वार्थपूर्ति का हेतु ही है।
मन्त्र विद्या- मन्त्र विद्या का क्षेत्र बहुत व्यापक है। मन्त्रों की रचना संसार के प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्येक भाषा और धर्म में की गई है। मन्त्रों की रचना समय-समय पर होती ही रही है। अतः सम्पूर्ण मन्त्रशास्त्र को जान सकना किसी के बस की बात नहीं है। सम्पूर्ण मन्त्रशास्त्र पर केवल देवताओं का ही आधिपत्य हो सकता है। भारतीय मन्त्र विद्या में चार पाँच प्रकार के मन्त्र हैं जिनका आगे संक्षेप से वर्णन किया जाएगा।
तन्त्र विद्या- मन्त्रों के सविधि प्रयोग को काम्य कर्मानुसार करने की सम्पूर्ण विद्या को ही तन्त्र विद्या कहा जाता है। इसमें वैदिक और पौराणिक मन्त्र नहीं आते हैं। तन्त्र ६४ कहे गए हैं इन सबके सम्मिलित स्वरूप को ही तन्त्र विद्या कहते हैं। किसी देवता के सभी स्वरूपों की तान्त्रिक उपासना पद्धति भी तन्त्र विद्या है। तन्त्र विद्या बहुत बड़ी है-सागर जैसी ।
देव विद्या- देवताओं को जानने, उनसे सहयोग लेने, उनसे सम्पर्क बनाने की जो भी योग, मन्त्रादि विद्याएँ हैं वे ही देव विद्या के रूप में जानी जाती हैं। इन विद्याओं में निपुणता पाने और इनमें पारंगत होने के लिए साधक को अपने अन्दर देवत्व के गुण उत्पन्न करने पड़ते हैं।
धर्म– धर्मचर-धर्म का आचरण करो। क्या है धर्म? वेद, पुराण श्रुतियों में वर्णित आचरण शैली का नाम धर्म है। तुलसी दास जी ने एक चौपाई में धर्म का वर्णन इस प्रकार किया है-
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
धर्माचरण- जिससे किसी को भी पीड़ा अर्थात् तकलीफ हो उससे बड़ा अधर्म कुछ नहीं है और जिससे दूसरे का हित हो उसके समान कोई धर्म नहीं है अर्थात् दूसरे को पीड़ा पहुँचाने वाले आचरण का त्याग और दूसरों का हित करने वाले आचरण का अभ्यास ही धर्माचरण है।
सत्कर्म- विगत १,००० वर्षों से ऊपर लगभग १,२०० वर्षों से वैदिक धर्म पर आघात होते रहे और अपना मूलस्वरूप ही लोग भूलगए। चूँकि उसका अभ्यास समाप्त हो गया। दरअसल सदाचार, सत्कर्म धर्माचरण अलग-अलग क्रियाएँ और आचरण हैं। सेवा, सहायता, दान, देवता का मन्त्र प्रणव के बाद हुं से शुरू होता है तो किसी का नमः से। यह सब देवताओं के अनुसार ही होते हैं।
कार्यानुसार देवता- जिस प्रकार के कार्य की अधिक आवश्यकता साधक को पड़ती हो उसी प्रकार के विधान से सम्बन्धित देवता को चुनने से ठीक रहता है। देवता कार्य के अनुसार अलग-अलग विभाग के स्वामी हैं। इसके अलावा देवता भी अपना स्वरूप भक्त के कार्य के अनुसार स्वयं बदल लेते हैं अतः चिन्तित न हों।
तदनुसार मन्त्र- करोड़ों-करोड़ों मन्त्र भरे पड़े हैं उन्हें देखकर परेशान न हों। ये सारे मन्त्र देवता और कार्य के अनुसार होते हैं। एक ही देवता के दस तरह के मन्त्र देखकर चकित न हों वे अलग कार्य के प्रयोजन से बनते हैं। अतः आप अपनी आवश्यकतानुसार ठीक मन्त्र का चयन गुरु आज्ञा से तय करें और उसी का अनुष्ठान करके सफलता पाएँ।
कार्य और देवता का सम्बन्ध- देवता का भक्त के कार्य से सम्बन्ध मन्त्र, संकल्प और भक्त की एकाग्रता, नियमित अनुष्ठान निर्विघ्नता के आधार पर जुड़ता है। यदि कार्य में देर हुई है तो भी चिन्ता न करें। देवता उसको करेंगे ही, आपकी व्यवस्था ठीक-ठीक होनी चाहिए। साधना से पूर्व संकल्प इसीलिए कहा जाता है ताकि देवता को पता चले आपका कार्य क्या है?
मन्त्र और कार्य का सम्बन्ध- संकल्प के साथ ही देवता और मन्त्र दोनों का सम्बन्ध कार्य से शुरू से जुड़ जाता है लेकिन कई बार यदि देवता का कोई अति प्रचलित समर्थ मन्त्र उसी कार्य के लिए है और उसका प्रयोग नहीं किया जा रहा है तो कार्य में विघ्न भी आ सकते हैं अतः इसका ध्यान रखना चाहिए।
मन्त्र और देवता का सम्बन्ध- मन्त्र और देवता का सम्बन्ध उसके विभिन्न रूपों के आधार पर भी हुआ करता है इसके साथ ही मन्त्र के बीज व्याहृतियाँ और मन्त्र में निर्दिष्ट कार्य अथवा प्रार्थना या साधक की इच्छा के अनुसार किए गए संकल्प के आधार पर देवता का मन्त्र के साथ सम्बन्ध होता है।
मन्त्र असल में देवता के साथ इतना गहरा सम्बन्ध रखते हैं कि अधिकाधिक जप करने पर देवता साधक के सामने प्रत्यक्ष भी खड़ा हो सकता है।
देवता के विभिन्न स्वरूप- देवता के विभिन्न स्वरूप निम्नवत् हो सकते हैं-मारक, संहारक, सम्मोहक, वशीकर्ता, स्तम्भक, विजृभक, उच्चाटक, आकर्षक, पुष्टिकर्ता, संकटहर्ता, रोगहर्ता, रक्षक, धनदाता, कार्यसिद्धक, युक्तिदाता, मित्र, स्वामी, भाई, पिता, गुरु सेवक सहायक और भी कितने ही स्वरूप हो सकते हैं।
इन्हीं स्वरूपों के आधार पर देवता साधक के कार्य सिद्ध करते हैं और कृपा करते हैं। छोटे स्तर के देवता प्रेत, पिशाच आदि सेवक का कार्य भी करते हैं।
कई साधकों के घर पर रात्रि में पिशाचों का पहरा रहता है परन्तु वे उतनी ही सेवा भी लेते हैं।
अनुष्ठान व उस लोक के देवराजा की पूजा- जिस देवता की कृपा पानी हो अथवा उससे कार्य लेना हो उस लोक के राजा की पूजा अनुष्ठान से पूर्व अन्य देवों के साथ करना आवश्यक होता है। यह भी सम्भव है कि उस लोक का राजा आपके कार्य को ही न होने दे। अतः गुरु पूजा और उस देवराजा की पूजा अवश्य करें।
देवताओं के पारस्परिक सम्बन्ध- यदि किसी कार्य में कोई देवता बड़ा विघ्न बन रहा होता है और पूजित देवता असमर्थ होगा तो स्वप्न में बना लेगा या किसी में कहला देगा कि इस देवता को प्रसन्न करो।
विभिन्न देवताओं के लोक- नाना प्रकार के देवताओं के लोकों की स्थिति केवल पृथ्वी के ऊपर ही आकाश में नहीं है अपितु स्वरूप हैं, स्वरूप भेद के अनुसार ही इनके मन्त्र व अनुष्ठान के भी प्रकार थोड़ा-थोड़ा भिन्न हैं।
कोई सिद्धिदायिनी है तो कोई मंगल करने वाली है कोई और वैर करने वाली है तो कोई वैर कराने का कार्य करती है। किन्तु सभी अपने भक्त की रक्षा करती हैं एवं सहायता करती हैं। जीवन की सफलता के लिए इनकी साधना करना बहुत लाभदायक रहता है।
इनमें प्रमुख पिंगला, संकटा, सिद्धा, उल्का, भ्रामरी और भद्रिका हैं। देश में बहुत स्थानों पर इनके सिद्धपीठ भी बने हुए हैं।
संकटा साधना
मन्त्र – ॐ ह्रीं संकटे मम रोगंनाशय स्वाहा।
अनुष्ठान- संकटायोगिनी की साधना लाल वस्त्र की पूजन सामग्री के द्वारा सिंहवाहिनी रूप में सप्तमी से पूर्णमासी तक की जाती है। त्रिकाल की संध्याओं में देवी का पूजन उक्त मन्त्र से करे। सप्तमी के प्रातःकाल ५,००० जप करें फिर नित्य प्रातः पूर्णमासी तक इसी प्रकार खीर, पूड़ी का भोग लगाकर सात कन्याओं को भोजन कराकर (ब्राह्मण कन्याएँ) जप करता रहे। पूर्णमासी तक भूमि पर ही सोवे। पूर्णमासी को हवन करे।
प्रभाव- सारे रोग और कष्ट नष्ट करके जीवन में सफलता देती हैं। मातृरूप में ही पूजा करें।
पिंगला साधना
मन्त्र – ॐ नमो पिंगले वैरिकारिणी, प्रसीद प्रसीद नमस्तुभ्यं ।
अनुष्ठान- पीले रंग की पूजन सामग्री से पंचमी के दिन से पूर्णमासी तक प्रातः मध्याह्न की सन्ध्याओं में देवी का षोडशोपचार पूजन करके ५,००० का जप करे। नित्य कन्याओं को पाँच ब्राह्मण कन्याओं को हलुवा (पीला) पूड़ी का भोजन कराए। देवी को भी इसी का भोग लगावे। नित्य हवन भी इसी से करे पूड़ी, हलवा देसी घी से बनाएँ (डालडा या तेल से नहीं)। भूमि पर शयन करे। पूर्णमासी को अधिक हवन करे।
प्रभाव- देवी की कृप से सारे विघ्न शांत होते हैं। सुमार्ग प्राप्त होता है तथा धन धान्य के मार्ग खुलते हैं और समृद्धि बढ़ती है।
मंगला साधना
मन्त्र – ॐ नमो मंगले मंगल कारिणी, मंगलं मे कुरु ते नमः ।
अनुष्ठान- अष्टमी के दिन से अमावस्या तक लाल रंग की पूजन सामग्री से मंगलायोगिनी की पूजा षोडशोपचार तीनों संध्याओं में करके प्रातःकाल ५,००० जप करे। शेष दोनों सन्ध्याओं में एक-एक माला जप करे। कन्याओं को नित्य फल मिठाई (मीठे फल) का भोग लगाए। रोज नौ कन्याएँ जिमावे। अमावस्या को दशांश हवन करे तो देवी प्रसन्न होती हैं। कन्याओं को अमावस्या को वस्त्र तथा दक्षिणा भी देवे। कन्याएँ ब्राह्मण की हों।
फल- देवी मंगला जिस साधक पर पूर्णतः प्रसन्न हो जाएँ वे उसे धन-धान्य से पूर्ण कर देती हैं। हर तरफ उसे मंगल ही मंगल करती हैं। इनकी उपासना भी माता के रूप में ही करनी चाहिए। अनुष्ठान के बाद नित्य प्रातः देवी की पूजा और एक माला जप करता रहे।
उल्का साधना
मन्त्र – ॐ उल्के विघ्नाशिनी कल्याणं कुरु ते नमः ।
अनुष्ठान- यूं तो उल्का बहुत ही उग्रशक्ति योगिनी पर कृपालु होती हैं। जो साधक चतुर्थी से अमावस्या तक त्रिकाल संध्या में श्वेत पूजन सामग्री से इनकी पूजा करके सायंकाल ५,००० जप नित्य करके अनुष्ठान पूर्ण कर लेता है। साथ ही रोज कन्याओं (ब्राह्मण) की खीर जब काली रातों में आपस में कड़कड़ाकर हुकारतें हैं तो भय स्वाभाविक ही होता है।
साधना फल- कपाल साधक का सामर्थ्य इतना होता है कि छोटे राज्य की पूरी सत्ता पलटवा सकता है। धन के तहखाने खुलवा सकता है। भूमिगत धन मँगवा सकता है। नगर के नगर उजाड़ सकता है। किन्तु इसके लिए शर्त यह है कि वे पाँचों कपाल योद्धाओं के हों, जो युद्ध में मरे हों। उन्हें लाकर सिद्ध करें।
साधना स्थल- साधना स्थल वट वृक्ष के नीचे, शान्त निर्जन वन ही इसके लिए उपयुक्त होता है, रात वहीं रहना पड़ता है। कई बार साधना तीन माह से छह माह तक समय ले लेती है। अतः धैर्य रखना चाहिए।
साधना भेद- कपाल साधना दो प्रकार की मुख्यतः होती है। एक तो ताजे मुर्दे का सिर गरदन से काट लावें उसकी। दूसरी श्मशान से कपाल उठा लावें, उसकी। हमेशा पाँच से कम कपालों की साधना एक साथ न करें चूंकि इससे जीवन का व्यतिक्रम हो सकता है।
साधना विधान- पाँच ताजे मुर्दे के सिर लाकर पृथ्वी में एक हाथ का चौड़ा चतुर्भुज बनाएँ। चार कोनों में और एक सिर बीच में गाड़ें एक हाथ नीचे फिर मिट्टी से भर के लीप देवें गोबर से। उस पर भैंसे के चमड़े पर बैठकर कम्बल डाल बैठकर साधन